शक्तिमान तो देवभूमि से चला गया, अपने पीछे सवाल छोड़ गया


शक्तिमान! तुम्हारा जाना बहुत दुःख दे रहा है। मैंने अभी तक देवभूमि के जो मामले लिखे वह ऐसे अपराध थे जो इंसानों ने इस दूसरे के खिलाफ किए थे। उनमें वह चीखे थे, चिल्लाये थे, बयान दिए थे। पुलिस के रोजनामचे और विवेचनाओं ने बहुत कुछ बयां किया था, लेकिन तुम्हारा दर्द उन सबसे बड़ा है इसलिए बयां करना मुश्किल है। तुम एक सियासतदान की कथित बहादुरी और गंदी राजनीति का शिकार हो गए। न चीख सके, न चिल्ला सके, न बचाव कर सके न कोई वार। क्योंकि तुम्हें तो इसकी बाजीगरी ही नहीं आती थी। तुमने तो पुलिस की ट्रेनिंग में वफादारी और हुनर सीखा था। तुम्हें सिखाया ही नहीं गया था कि कोई इंसान यदि जानवर बन जाए, तो उससे किस तरह पेश आया जाए। कोढ़ग्रस्त इंसानियत पर तुम हैरान थे। तुम्हारा बेजुबान होना जान पर बन आया। तुम्हारे साथ सब सरेआम हुआ था। कोई वारदात यूं होती तो तस्वीर दूसरी होती परन्तु तुम्हारे मामले में कानून का लचीलापन था। 13 मार्च से अब तक तुमने बहुत दर्द सहा। हम सिर्फ उस तड़प को महसूस ही कर सके। तुम्हें बचाने की हर संभव कोशिशें कीं, जिंदगी सलामत रहे इसलिए न चाहते हुए भी तुम्हारे पैर को भी जिस्म से जुदा करना मजबूरी हो गया। दवाईयां दीं, आपरेशन किया, कृत्रिम पैर लगाया। पुलिस विभाग की तुम शान थे इसलिए जिंदा रखना चाहते थे, लेकिन अफसोस तुम जिंदगी की जंग हार गए। मेरा और लाखों लोगों का तुमसे कोई रिश्ता नहीं, लेकिन शक्तिमान आंखें नम हैं और दिल में सभी के बहुत टीस है। एक ऐसी टीस जो पहले कभी महसूस नहीं की गई। तुम नहीं जानते कि तुम्हारी मौत पर भी राजनीति होगी क्योंकि राजनीति तो इस शर्म से आजाद होती है। काश! तुम इंसानियत पर सवाल छोड़कर जाने के बजाये जिंदा रहते शक्तिमान!

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